हलाकू खान कौन था
चंगेज खान को सबसे क्रूर शासक माना जाता रहा है लेकिन चंगेज खान से भी एक कदम आगे उसका पोता हलाकू खान था। जिसका मकसद ही क्रूरता में अपने दादा चंगेज से आगे निकलना था। भारत तो हलाकू के कहर से बच गया लेकिन हलाकू ने बग़दाद विजय में जो क्रूरता दिखाई वो आज भी अपने आप में अनोखा ही है। हलाकू ख़ान ने 29 जनवरी सन 1257 को बग़दाद की घेराबंदी की शुरुआत की थी। मंगोल फ़ौज ने 13 दिन तक बग़दाद को घेरे में ले रखा था। जब प्रतिरोध की तमाम उम्मीदें दम टूट गईं तो 10 फ़रवरी सन 1258 को समर्पण के दरवाज़े खुल गए। 37वें अब्बासी ख़लीफ़ा मुस्तआसिम बिल्लाह अपने मंत्रियों और अधिकारियों के साथ मुख्य दरवाज़े पर आए और हलाकू ख़ान के सामने हथियार डाल दिए। हलाकू ने वही किया जो उसके दादा चंगेज़ ख़ान पिछली आधी सदी से करते चले आए थे।
ख़लीफ़ा के अलावा तमाम आला ओहदेदारों को मौत के घाट उतार दिया और मंगोल सेना बग़दाद में दाख़िल हो गई। इसके बाद हलाकू ने बग़दाद पर जो कहर बरपाया वो इस तरह था – “वो शहर में भूखे भेड़िये की तरह घुस गया और जिस तरह भूखे भेड़िये भेड़ों पर हमला करती हैं वैसा करने लगे। बिस्तर और तकिए चाकूओं से फाड़ दिए गए। महल की औरतें गलियों में घसीटी गईं और उनमें से हर एक तातरियों का खिलौना बनकर रह गईं।” इस बात का सही अंदाजा लगाना मुश्किल है कि कितने लोग इस क़त्लेआम का शिकार हुए। इतिहासकारों का अंदाज़ा है कि दो लाख से लेकर 10 लाख लोग तलवार, तीर या भाले से मार डाले गए थे। इतिहास की किताबों में लिखा है कि बग़दाद की गलियां लाशों से अटी पड़ी थीं। चंद दिनों के अंदर-अंदर उनसे उठने वाली सड़ांध की वजह से हलाकू ख़ान को शहर से बाहर तम्बू लगाने पर मजबूर होना पड़ा। इसी दौरान जब विशाल महल को आग लगाई गई तो इसमें इस्तेमाल होने वाली आबनूस और चंदन की क़ीमती लकड़ी की ख़ुशबू आसपास के इलाके के वातावरण में फैली बदबू में मिल गई। दजला नदी का मटियाला पानी कुछ दिनों तक लाल रंग में बहता रहा और फिर नीला पड़ गया.लाल रंग की वजह वो ख़ून था जो गलियों से बह-बहकर नदी में मिलता रहा और सियाही इस वजह से कि शहर के सैंकड़ों पुस्तकालयों में महफ़ूज़ दुर्लभ नुस्खे नदी में फेंक दिए गए थे और उनकी सियाही ने घुल-घुलकर नदी के लाल रंग को हल्का कर दिया था।